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सरकारें : अब... कोरोना के साथ जीना होगा

सरकारी तंत्र के भरोसे बैठे जनतंत्र को अब कोरोना के साथ जीना होगा : सरकार को टैक्स चाहिए इसलिए वर्क फ्रॉमहोम नहीं, कुछ वर्क करें (क्योंकि लॉकडाउन में करोड़ों बेरोजगार हुए हैं)

देश में कोरोना की महामारी फैली है। सरकारी लॉकडाउन के 60 दिन पूरे हुए। मई खत्म होने में 6 दिन शेष हैं। सरकार की बात मानकर जो लोग घरों में बैठे हैं। बेशक वह संक्रमण से बचे हैं या नहीं ये उन्हें भी नहीं पता। क्योंकि 130 करोड़ की आबादी वाले देश में 60 दिनों में अभी कोरोना टेस्टिंग का आंकड़ा 30 लाख तक नहीं पहुंचा है।

जनतंत्र में आक्रोश क्यों : ऐसे लोग जो सरकार चुनते हैं और वोट देते हैं। घर बनाते हैं, फैक्ट्रियां चलाते हैं, दफ्तरों में काम करते हैं और देश के निर्माण में चंद सिक्कों के लिए हर महीने की निश्चित तारीख को वेतन का इंतजार करते हैं। उन्हें इस लॉकडाउन में क्या मिला? पुलिस के डंडे, चिलचिलाती धूप में जलती धरती पर नंगे पांव परिवार के साथ राज्य से पलायन, सैलेरी में कटौती या फिर नौकरी गंवाना।  

पैदल घर जाने वालों पर डंडा वर्षा, उड़कर आने वालों पर पुष्प वर्षा :  आमजन में आक्रोश इस बात को लेकर भी है कि लॉकडाउन में वह अपने घर जाना चाहते थे तो उन्हें पकड़कर बंद कर दिया गया। सड़क पर निकले तो भीड़ के नाम पर डंडे बरसाए गए। बच्चों सहित नंगे पांव धूप के बीच खाली पेट चलना पड़ा। लेकिन जो लोग सात समंदर पार बसे थे या रह रहे थे। विदेशों में भयानक रूप ले चुकी कोरोना महामाहरी से बचने के लिए उनके भारत आने पर उन पर पुष्पवर्षा हो रही है। यह वह लोग हैं जो न तो केंद्र को और न राज्य सरकार को वोट देते हैं। यह एलीट वर्ग देश में पढ़ता है, बड़ा होता है और जब देश के लिए कुछ करने का वक्त आता है तो विदेश चला जाता है। जो यहीं रह जाते हैं उन पर डंडा वर्षा जो विदेश से आते हैं उन पर पुष्पवर्षा

ये पब्लिक है सब जानती है : अक्सर इसे फिल्मी गीत समझा जाता है। सरकारें कह रही हैं कि हमें कोरोना के साथ रहना होगा तो इस जन तंत्र में राजतंत्र ने इतनी खलबली और लोगों की जीविका क्यों छीन ली। अब आर्थिक ढांचा बचाने के नाम पर अपना राजतंत्र बचाने के फिर से जन को मरने के लिए सड़कों पर यह कहकर उतारा जा रहा है कि हमें कोरोना के साथ जीना सीखना पडेगा। क्यों नहीं लोगों के टैक्स पर पलने वाले ये नेता और अधिकारी सड़कों पर घूमते नजर आते। बसों में, ट्रेन पर या मेट्रों में क्यों नहीं भीड़ के बीच सफर करते और फिर अपने परिवार या बच्चों के बीच जाकर बैठें। तब अहसास होगा कि कोरोना का डर क्या है? जान भी और जहान भी है कि वास्तविकता का अहसास तो तभी होगा.


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